दूसरों को मारकर प्राणों का पोषण करने वाले दुष्ट का वध ही उसके लिये कल्याणकारी !
श्रीमद्भागवत महापुराण- प्रथम स्कन्ध,अध्याय 7
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—‘धर्मवेत्ता पुरुष असावधान, मतवाले, पागल, सोये हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञान-शून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को कभी नहीं मारते । परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरों को मारकर अपने प्राणों का पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदत को लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापों के कारण अधोगति पाता है, नरकगामी होता है।
मत्तं प्रमत्तमुम्नत्तं सुप्तं बालं स्त्रियं जडम्।
प्रपन्नं विरथं भीतं न रिपुं हन्ति धर्मवित्।।३६।।
स्व प्राणान्यः परप्राणैः प्रपुष्णात्यघृणः खलः।
तद् वधस् तस्य हि श्रेयो यद् दोषाद्यात्यधः पुमान्।।३७।।
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श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय 13
रसिक संतों की जीह्वा भगवान की लीला के गान, कान उसके श्रवण, और हृदय चिन्तन के लिये ही होता है, उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चा में नया-नया रस जान पड़ता है।
सतामयं सार भृतां निसर्गो
यदर्थवाणी श्रुति चेतसामपि ।
प्रति क्षणं नव्य वदच्युतस्य यत्
स्त्रिया विटानामिव साधु वार्ता ॥ २ ॥
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गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं | सुंदर मोर को ही देख लो उसका वचन तो अमृत के समान है लेकिन आहार साँप का है |
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर |
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ||
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दुष्टचित्त मनुष्य के द्वारा स्मरण किये जाने पर भी परमात्मा पापों को हर लेते हैं। जैसे अनजाने में या अनिच्छा से स्पर्श करने पर भी अग्नि जला देती है।
हरिर्हरति पापानि दुष्ट चित्तैरपि स्मृत:।
अनिच्छयापि संस्पृष्टो दह्त्येव हि पावक:॥
[पावक: - अग्नि]
(यह श्लोक नारदीय पुराण, पांडव गीता तथा श्री हर्यष्टकम् में भी आया है)
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मैं दुर्जन और दयामय तू ,
मैं कृपण कुमति, करुणामय तू ,
मैं वंचित हूं , तू भक्त वत्सल है ,
मैं आश्रित हूं और आश्रय तू ,