पंचवटी में राम मिलेंगे, पहले पौधे पांच लगाओ!
भारतीय संस्कृति प्रचीन काल से ही अरण्य संस्कृति रही है। भारत के ऋषि-मुनियों ने गुफा कन्दराओं में वनों के शांत, सुरम्य एवं स्वच्छ परिवेश में चिंतन मनन कर के जीवन दर्शन का प्रणयन किया है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में वन, वनस्पतियों, पेड-पौधों एवं पर्यावरण के संदर्भ में कई स्तुत्य रचनाएं की गईं हैं जो आज हमारे लिए प्ररणास्पद हैं। यह प्रचीन रचनाएं ऋषियों के गहन चिंतन, मनन और अनुभवों को रेखांकित करती हैं। भारतीय संस्कृति, परम्परा तथा मान्यताओं के अनुसार वृक्षों में देवताओं का वास होता है। केला वृक्ष की पूजा गुरू बृहस्पति को प्रसन्न करने के लिए की जाती है। प्रजनन क्षमता के लिए नारियल, महुआ, सेमल एवं आक की पूजा की जाती है। कृष्ण की जन्म और कर्म स्थली का नाम तो वृन्दावन तुलसी पर ही रखा गया है। तुलसी आज भी हर घर में पाई जाती है। अन्तर केवल इतना आया है कि आंगन की जगह इस का स्थान अब गमलों में हो गया है। संस्कृत में एक श्लोक है:-
मूल ब्रह़्मा, त्वचा विष्णु, शाखे रूद्र महेशव:।
पत्रे-पत्रे तु: देवस्नाम, वृक्ष राज नमस्तुभ्यं ।।
अर्था जड में जगतकर्ता प्रजापति ब्रह्मा, तने में विष्णु, शाखाओं में शिव और पत्ती-पत्तियों में देवताओं को धारण करने वाले वृक्ष तुम्हें मेरा बार बार नमस्कार है।
पद्म पुराण के अनुसार पादपों के रोपण से मनुष्य को विभिन्न प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। पीलू से आरोग्य, नीम से प्रसन्नता, बेल पत्र से शांति, चम्भा से सौभाग्य, चमेली से कुल वृद्धि, केवडे से शत्रु नाश, पीपल से धन और अशोक वृक्ष से एक लाख यज्ञों का फल मिलता है। भविष्य पुराण में लिखा है कि पीपल का वृक्ष एक लाख पुत्रों से भी बढ कर है। राजस्थान में तो वृक्ष पूजा के अनुपम उदाहरण मिलते हैं। अजमेर-ब्यावर के बीच मांगलियावास गांव में आज भी कल्प वृक्ष की पूजा के लिए हर साल श्रावण माह की अमस्या को विशाल मेला आयोजित होता है और वृक्षों के राजा कल्प वृक्ष को कलावा रूपी पगडी पहनाई जाती है। रानी कल्प वृक्षें को स्त्रियां चूनरी अर्पित करती हैं जिससे उनकी मनोकामना पूरी हो सके। यह विशालकाय कल्प वृक्ष एक हजार साल के बताए जाते हैं। एक कल्प तरू युवराज को सन 1972 में लगाया गया था जिसने सन 1984 में फलान्वित होना शुरू कर दिया। आज भी दशहरे पर शमी (खेजडी) की विधि सम्मत पूजा करने की परमपरा सभी जगह पाई जाती है। जोधपुर के पास रामासाडी गांव में शमी ( खेजडी) वृक्ष को काटने का विरोध करते हुए अमृताजी के नेतृत्व में विश्नोई समाज के 363 स्त्री-पुरूषों ने शीश कटा दिए पर वृक्षों को नहीं कटने दिया। इस की याद में रामासाडी गांव में आज भी हर साल शहीद मेला आयोजित किया जाता है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दर लाल बहुगुणा ने वृक्षों की रक्षा के लिए चिपको आंदोलन की प्रेरणा रामासाडी के शहीद मेले से ही ली थी। वृक्षों के प्रति अपनी संतति की तरह प्रेम प्रदर्शन की उद्दात भावना पूरी दुनिया में भारत के अलावा और कहीं देखने को नहीं मिलेगी। मत्स्य पुराण कहता है-
दशकूप समावाती, दशवापी समोदह:।
दश हद सम: पुत्र, दश पुत्र समो द्रुम:।।
यानी दस कुओं के बराबर एक बावडी, दस बावडियों के बराबर एक तालाब है। दस तालाबों के समान एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। दुर्गा सप्तशती में लिखा है कि- वन आच्छादित पृथ्वी ही हमारा पोषण करती है। जब तक पृथ्वी पेडों, पहाडों, वनों आदि से आच्छादित रहेगी तब तक वह मनुष्यों की सन्तानों की हर आवश्यकता का पोषण करती रहेगी। गीता में भी वनों की आवश्यकता तथा उनके संरक्षण की आवश्यकता प्रतिपादित की गई है। गीता में कहा गया हे कि अन्न से प्राणि मात्र का पोषण होता है, अन्न से जल उतपन्न होता है और जल प्राप्ति (वर्षा) वनों से होती है। इसलिए वृक्ष सम्वर्धन का यज्ञ करते रहना चाहिए। बृहत्संहिता में आचार्य बराहमिहिर वृक्ष रोपण के स्थान को निर्दिष्ट करते हुए कहते हैं-घर के समीप तथा चैत्यों में नीम, अशोक, शिरीष आदि व्क्ष लगाए जाना चाहिए। मनुस्मृति में भी नगर सीमाओं पर वट, पीपल, पलाश, सेमल साल और खिरणी के वृक्ष लगाने के लिए निर्दिष्ट किया गया है। वनवास में राम पंचवटी में रहते थे वहां आशोक, पीपल, वट, आंवला और बेलपत्र आदि पांच वृक्ष थे इस लिए ही उस का नाम पंचवटी था। राम से मिलना है तो- पहले पौधे पांच लगाओ-पंचवटी में राम मिलेंगे।